महाशिवरात्रि (Mahashivratri Fasting) का व्रत अन्य सभी व्रतों की अपेक्षाकृत अधिक लाभप्रद है । ऐसा माना जाता है कि मनुष्यों के लिए इस व्रत से अधिक पुण्यदायक एवं शुभ फलदायक व्रत और कोई नहीं है। 

हिन्दू पंचांग व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि माना जाता है और उस दिन भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती है। 

परन्तु फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है क्योंकि इस की विशेष महत्ता के कई कारण हैं ।

महाशिवरात्री के दिन पूरे देश के सभी शिवालयों/मंदिरों में चाहे शहर हो या गांव सभी जगह भारी भीड़ आती है क्योंकि प्रत्येक सनातन धर्म को मानने वाला परिवार इस दिन अवश्य ही भगवान शिव की पूजा तथा शिव लिङ्ग का जलाभिषेक कर महादेव का आशीर्वाद प्राप्त करता है। 

महाशिवरात्रि का पर्व क्यों मनाया जाता है  ? (Why does Mahashivratri celebrated?)

महाशिवरात्रि के पर्व को अत्यधिक उत्साह एवं समर्पण के साथ भगवान शिव से संबंधित कई रुचिकर कथाऐं /, घटनाऐं हैं।  यह स्मरण इस प्रकार हैं  —

 ●    पौराणिक उल्लेखों एवं शास्त्रों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि शिव तत्त्व से जुड़ी हुई है अर्थात यह तिथि भगवान शिव के दिव्य अवतरण की तिथि है। 

यह तिथि भगवान शिव के निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि होने की वजह से यह महाशिवरात्रि कहलाता है। 

 ●    पौराणिक उल्लेखों से यह मालुम होता है कि फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवान शिव और देवी पार्वती का विवाह हुआ था,  इसलिए इस तिथि को महाशिवरात्रि के  रूप में मनाया जाता है।  

 ●      भगवान शिव का माता पार्वती से विवाह यह स्पष्ट करता है कि इस तिथि को भगवान शिव ने वैरागी जीवन से गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था। इसीलिए इस तिथि को महाशिवरात्रि के रूप में मनाते हैं। 

 ●      इस तिथि को माता पार्वती के साथ भगवान शिव का विवाह होने से वे भगवान शंकर के नाम से भी जाने जाने लगे अर्थात विवाह / गृहस्थ होने से वह शंकर जी कहलाऐ जाने लगे। 

 ●       यह भी मान्यता है कि फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को ही महादेव जी (भगवान शिव) शिवलिङ्ग स्वरूप में प्रकट हुए थे।  अतः महाशिवरात्रि को भगवान शिव के ज्योतिर्लिंङ्ग के प्रकाट्य के रूप में भी जाना जाता है  ।

 ●       शिव पुराण में ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव जब निराकार रूप से शिवलिङ्ग के रूप में प्रकट हुए तो इसी दिन भगवान विष्णु ने सबसे पहले उनकी शिवलिङ्ग रूप की पूजा की थी।  

 ●       ऐसी भी मान्यता है कि इस तिथि को द्वादश ज्योतिर्लिंङ्ग प्रकट हुए थे और उनके प्रकाट्य उत्सव के रूप में इस दिन महाशिवरात्रि का उत्सव  / त्यौहार मनाया जाता है।  

इस वर्ष महाशिवरात्रि कब है  ? (When is Mahashivratri this year)

महाशिवरात्रि का त्यौहार प्रति वर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी जिस दिन मध्य रात्रि तक होती है उस दिन महाशिवरात्रि मनाने का विधान है। 

इस वर्ष यानि सन् 2023 में यह महाशिवरात्रि का पर्व दिनांक 18 फरवरी 2023 ,दिन शनिवार को पूरे भारत में मनाया जायगा। 

महाशिवरात्रि की पूजा निशीथ काल में बहुत शुभ फलदायक मानी जाती है।  आइए जानें इस त्यौहार के पूजा मुहूर्त के समय। 

महाशिवरात्रि 2023 के पूजा मुहूर्त  –

फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष चतुर्दशी तिथि आरंभ  –  दिनांक 18 फरवरी 2023 दिन शनिवार  रात्रि 08 – 03 PM से ।

चतुर्दशी तिथि समाप्त  – दिनांक 19 फरवरी 2023 दिन रविवार  सांय 04 -19 (PM) बजे तक।

दिनांक 18 फरवरी 2023 को सूर्योदय का समय  – प्रातः 07 – 01(AM)बजे

निशीथ काल की पूजा का समय  – 18 फरवरी 2023 की रात के 12 बज कर 09 मिनट से रात्रि के 1-00 बजे तक। 

रात्रि के प्रथम पहर की पूजा का समय-

        18 फरवरी 2023 सांय 06 -13 बजे से रात 09-24 बजे तक

रात्रि के दूसरे पहर की पूजा का समय-

        18 फरवरी2023 रात 09-24 बजे से रात के 12 बजकर 35 मिनट तक  ।

रात्रि के तीसरे पहर की पूजा का समय –     

18फरवरी 2023 की रात के  12 बजकर 35 मिनट से 03 बजकर 46 मिनट तक। 

रात्रि के चौथे पहर की पूजा का समय-

         19 फरवरी 2023 प्रातः 3 बजकर 46 मिनट से 06 बजकर 56 मिनट तक। 

व्रत पारण करने का समय  – 19 फरवरी 2023 प्रातः 06 -57 बजे से दोपहर 03 बजकर 33 मिनट तक। 

महाशिवरात्रि पूजा विधि  – (Worship Rule of Mahashivratri)

इस दिन प्रातःकाल में जल्दी उठकर नित्य कर्म से निवृत्त हों। 

इसके बाद स्नान करें।  स्नान करते समय स्नान के जल में कुछ बूंद गंगाजल डालें अन्यथा माँ गंगा का जल में आवाह्न कर के स्नान करें।  

स्नान के उपरांत स्वच्छ/ साफ सुथरे वस्त्र धारण करें। 

एक लोटे में स्वच्छ जल लेकर भगवान सूर्य को अर्घ्य मन्त्र बोलते हुए अर्घ्य अर्पण करें तथा अर्घ्य के पश्चात प्रदिक्षणा करें व भगवान सूर्य को प्रणाम करें। 

जिस स्थान पर पूजन करना हो वह स्थान साफ करें तथा कुछ बूंद जल की हाथ में लेकर वहाँ पवित्रता के लिए छिड़कें। 

अगर मंदिर/ शिवालय जा कर पूजा करनी हो तो पूजा का सारा सामान  – दीपक,  रोली,  चंदन,  कलावा,  एक लोटे में जल तथा उस में थोड़ा सा कच्चा दूध डाल लें। शिवलिङ्ग पर चढ़ाने के लिए बेल पत्र, धतूरा या अन्य फल भी साथ रख लें।  

पूजा प्रारंभ करने से पहले दीपक जलाऐ तथा भगवान शिव व माता पार्वती को तिलक लगाऐ  व अपने मस्तक पर भी तिलक लगाऐ। 

भगवान शिव व माता पार्वती की मूर्ति को कलावे के सात फेरे से जोड़ें और कलावा वहीं छोड़ दें। भगवान शिव व माता पार्वती का जोड़ा इस लिए बनाते हैं क्योकि इस दिन उन का विवाह हुआ था।  

शिवलिङ्ग पर बेल पत्र, धतूरा या फल आदि चढ़ाऐ तथा उसका जलाभिषेक करें। 

भगवान शिव की पूजा करते समय उनकी आराधना के मन्त्र अवश्य जपें।  बिना मन्त्रों के की गई पूजा का उचित फल नहीं मिलता। 

भगवान शिव की पूजा करते समय निम्न मन्त्रों का जाप करते रहें-

ॐ नमः शिवाय  ।

ॐ शिवाय नमः  ।

ॐ त्रिनेत्राय नमः  ।

ॐ ऐं ह्रीं शिव गौरीमय ह्रीं ऐं ॐ ।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्। 

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षिय माऽमृतात् ।।

अगर महाशिवरात्रि के दिन उपवास (व्रत) रखना चाहते हैं तो व्रत का संकल्प यह बोलते हुए करें  –

” शिवरात्रिव्रतं ह्येतत करिष्ये महाफलम्। 

निर्विघ्नम्ऽस्तु से चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते ।।”

महाशिवरात्रि के संबंध में एक कथा का उल्लेख शिव पुराण में मिलता है।  इस पौराणिक कथा के अनुसार पुरातन काल में चन्द्र भानु नाम का एक गरीब व्यक्ति था जो जंगल में जानवरों का शिकार करके अपने परिवार का जीविकोपार्जन करता था। 

कई बार जंगल में शिकार न मिलने के कारण उसे एक साहूकार से कर्जा भी लेना पड़ता था। साहूकार का कर्जा बढ़ता जा रहा था और वह कर्जा वापस करने में असमर्थ था। ऐसे में साहूकार ने एक बार उसे बंदी बना कर अपने घर के शिव मठ/ शिवालय में बन्द कैद कर लिया। 

जिस दिन उस को बन्दी बनाया वह दिन संयोग से महाशिवरात्रि का था।  साहूकार ने उस दिन अपने घर पर महाशिवरात्रि की पूजा  अर्चना विधि  – विधान से की।  शिकारी  चन्द्र भानु जो साहूकार के यहाँ बन्दी था उस ने पूरी पूजा तथा कथा आदि को बहुत ध्यान से सुना।  

पूजा समाप्ति के बाद शिकारी ने साहूकार से निवेदन किया कि मैं आप का कर्जा शीघ्र उतार दूंगा।  तो साहूकार ने कहा कि मेरा कर्जा कल ही चुकता कर देना। 

यह सुन कर शिकारी ने हाँ कर दी और साहूकार ने उसे बन्दी ग्रह से मुक्त कर दिया।  बन्दी ग्रह से मुक्त होकर तुरन्त ही शिकारी जंगल में शिकार के लिए चल पड़ा जिस से कि अगर शिकार मिल जाय तो वह साहूकार का कर्जा उतारेगा  ।

शिकार की खोज में उसे जंगल में ही शाम खत्म होने को आई और अंधेरा होना शुरु हो गया।  जंगल में एक तालाब था,  इसलिए शिकारी ने सोचा कि निश्चय ही यहाँ पर जंगल के जानवर पानी पीने आते  होंगे और वह अगर किसी नजदीक के पेड़ पर छुप कर बैठ जाय तो उसे शिकार करने का मौका आसानी से मिल जायगा। 

ऐसा विचार करके वह शिकारी तालाब के पास एक पेड़ पर चढ़ कर बैठ गया।  जिस पेड़ पर वह चढ़ कर बैठा वह पेड़ बेल पत्थर (बेल पत्र) का था और उसके नीचे एक शिव लिङ्ग था जो कि बेल पत्रों से ढका हुआ होने के कारण स्पष्ट दिखाई भी नहीं दे रहा था तथा इस बात की शिकारी चन्द्र भान को भी कोई जानकारी नहीं थी। 

वह शिकारी पेड़ पर जहाँ बैठा वहाँ पर अपनै बैठने का उचित स्थान बनाने के लिए उस ने बेल पत्र की कुछ टहनियाँ तोड़ी और नीचे गिरा दीं।  इस हलचल में कुछ बेल पत्र पेड़ से नीचे गिरे जो सीधे शिव लिङ्ग पर गिरे।  

वह शिकारी अपने शिकार की घात में भूखा- प्यासा वहीं बेल पत्र के पेड़ पर बैठा रहा।  इस प्रकार उस शिकारी का भी महाशिवरात्री के दिन उपवास हो गया।  कुछ देर के बाद एक हिरणी जो कि गर्भ से थी वहाँ तालाब पर पानी पीने को आई। 

शिकारी ने तुरंत अपना धनुष उठाया और तरकश से एक तीर निकाल कर धनुष पर लगाया तो कुछ खड़ – खड़ की सी आवाज हिरणी को सुनाई दी।  हिरणी ने तुरंत सतर्क होकर इधर-उधर व पेड़ की ओर  देखा तो उसे तीर कमान के साथ शिकारी दिखाई दिया। 

हिरणी उसे देखते ही समझ गई कि वह शिकारी उस का शिकार करना चाहता है।  अतः व। हिरणी शिकारी से बोली , ” हे शिकारी !  मैं इस समय गर्भ से हूँ और शीघ्र ही मेरा प्रसव होने वाला है।  अगर तुम मेरा वध करोगे तो दो जीवों की हत्या करोगे।  यह उचित नहीं है बल्कि पाप होगा। 

मैं शीघ्र ही अपने बच्चे को जन्म देकर तुम्हारे पास आ जाउंगी।  उस समय तुम मेरा शिकार कर लेना।  यह सुन कर शिकारी ने अपना तीर वापस तरकश में रख दिया और हिरणी वहाँ से वापिस चली गई। 

तीर को वापस तरकश में रखने तथा धनुष को रखने में कुछ बेल पत्र की डालियाँ हिलने के कारण कुछ बेल के पत्ते टूट कर नीचे शिव लिङ्ग पर गिरे। अतः इस प्रकार अनजाने में भगवान शिव की प्रथम पहर की पूजा हो गई।  

कुछ देर बाद वहाँ तालाब पर एक और हिरणी पानी पीने आई।  हिरणी के तालाब के नजदीक आने पर शिकारी ने चौकन्ना होकर तुरन्त अपना धनुष उठाया और उस का शिकार करने के लिए तीर चढ़ाया। 

इस से उस पेड़ के पत्तों की कुछ खड़खड़ाहट हुई तो हिरणी ने एकदम चौकन्ना होकर देखा तो उसे पेड़ पर शिकारी दिखाई दिया।  पेड़ पर तीर कमान के साथ शिकारी को देख कर हिरणी उस से बोली कि मैं अभी थोड़ी देर पहले ही ॠतु से निवृत्त हुई हूँ और कामातुर होकर अपने प्रिय हिरण को खोज रही हूँ। 

तुम मेरा वध अभी मत करो,  मैं अपने पति से मिल कर तुम्हारे पास वापस आ जाऊंगी तब तुम मेरा शिकार कर लेना।  उस शिकारी ने हिरणी की बात सुनकर उसे भी जाने दिया  ।

इसके बाद शिकारी विचार करने लगा कि पता नहीं अब कोई शिकार इधर आयेगा या नहीं क्योंकि अब रात का तीसरा पहर आ गया है।  ऐसा विचार करते  – करते उस ने अपने धनुष वाण एक ओर रखे।  इस हिल डुल से फिर कुछ बेल पत्र टूट कर नीचे शिव लिङ्ग पर गिर गए।

इस प्रकार फिर से उस शिकारी का दूसरे पहर का शिव पूजन सम्पन्न हो गया।   इस के थोड़ी देर बाद उसे एक और हिरणी अपने दो बच्चों के साथ आती दिखाई दी। 

शिकारी ने उस हिरणी पर अपने धनुष का निशाना साधा।  शिकारी के तीर छोड़ने से पहले हिरणी ने शिकारी को देख लिया और बोली,  ” हे वनेचर !  मैं इन बच्चों को इनके पिता के पास छोड़ आऊं और फिर लौट कर तुम्हारे पास आ जाऊंगी।  कृप्या अभी मुझे जाने दो। 

शिकारी ने ऐसा करने से उसे इंकार कर दिया और बोला कि तुम से पहले मैं इसी प्रकार दो हिरणियों को छोड़ चुका हूँ।  शिकारी के वचन सुन कर  हिरणी ने कहा कि आप मेरी बात पर विश्वास करें ,  मैं आप को पूरे भरोसे के साथ आग्रह कर रही हूँ कि मैं वापस आ जाऊंगी।  

हिरणी की बात सुन कर शिकारी को उस पर दया आ गई और उसे शीघ्र आने के लिए बोल कर जाने दिया।  उधर भूखा – प्यासा शिकारी तेज भूख से बेहाल था और इस चिड़चिड़ेपन में पेड़  से पत्तियाँ तोड़ तोड़ कर नीचे डालता रहा जो कि शिव लिङ्ग पर गिर रहीं थीं।  

जब सुबह हुई तो उसे एक मृग (हिरण) तालाब की ओर आता हुआ दिखाई दिया।  शिकारी ने उसे देख कर अपने धनुष वाण उसे मरने के लिए तैयार किये। 

तभी उस मृग ने शिकारी से कहा कि यदि मुझ से पहले यहाँ आने वाली तीन हिरणियों को तुम ने मार डाला है तो मुझे भी मार डालो क्योंकि मैं उनके वध का दुख सहन नहीं कर सकूंगा।  मैं उन हिरणियों का पति हूँ और यदि तुमने उन्हें जीवन दान दिया है तो मुझे भी जीवन दान दो।

मैं वायदा करता हूँ कि मैं उन से मिल कर तुम्हारे पास वापस आ जाऊंगा।  तब तुम मेरा शिकार खुशी के साथ करना।  शिकारी ने उस मृग को भी जाने दिया। 

जब अगली सुबह का सूर्य पूर्णतः निकल आया,  तब तक शिकारी का अंजाने में ही महाशिवरात्रि का जागरण और उपवास एवं तीनों पहर की पूजा शिव लिङ्ग पर बेल पत्र चढ़ने से पूरी हो गई थी।  भगवान भोलेनाथ शिव जी की कृपा से इस शिवरात्रि के उपवास का फल उसे तुरंत प्राप्त हुआ। 

भगवान शिव की कृपा से उस शिकारी का हृदय परिवर्तन हो गया और वह बहुत निर्मल प्रवत्ति का मनुष्य हो गया।  

कुछ ही देर बाद हिरण का पूरा परिवार वहाँ तालाब के पास बेल के पेड़ के नीचे आ गया ताकि शिकारी उनका शिकार  (वध) कर सके।  लेकिन शिकारी ने उन्हें नहीं मारा क्योंकि अब उसका हृदय परिवर्तन हो चुका था।  

महाशिवरात्रि के दिन शिकारी का उपवास और शिव लिङ्ग पर बेल पत्र चढाने से उस शिकारी को मोक्ष प्राप्त हुआ और उसको शिव लोक में स्थान मिला।

भगवान शिव की कृपा से शिकारी चन्द्र भान अगले जन्म में राजा बना तथा उसे अपने पिछले जन्म का भी याद रहा।  इस जन्म में भी वह आजन्म भगवान शिव का अनन्य पुजारी रहा ।

महाशिवरात्री के दिन संध्याकाल में भगवान शिव व माता पार्वती की आरती करें और खीर का भोग लगाऐ। 

इस दिन अपने परिवार जनों के साथ मिलकर भगवान शिव के भजन, शिव चालीसा का पाठ तथा अन्य स्तोत्रों का पाठ करें।  यह बहुत शुभ फलदायक होते हैं। 

महाशिवरात्रि के दिन बहुत से लोग रात में जागरण भी करते हैं ।

महाशिवरात्रि की पौराणिक कथा –

शिव पुराण की कोटि रुद्र संहिता में महाशिवरात्रि  की कथा का उल्लेख मिलता है जो कि इस प्रकार है  –

प्राचीन काल में एक जंगल में एक निषाद परिवार रहता था।  उस निषाद का नाम गुरुद्रुह था । वह बड़े क्रूर स्वभाव का था तथा अपने कुटुम्ब का भरण पोषण जंगली जानवरों के शिकार  तथा चोरी करके करता था। 

एक दिन जब महाशिवरात्रि का दिन था वह नित्य की भांति जंगल में शिकार को गया,  पर दिन भर उसे कोई शिकार नहीं मिला और शाम का सूर्यास्त का समय आ गया और यह सोच कर चिंतित था कि आज अपने भूखे माता पिता को खाने के लिए कुछ भी नहीं दे पाऊंगा।

इसी उलझन में जब वह जंगल में घूम रहा था तो उसे एक जलाशय दिखाई दिया तो उसने सोचा कि निश्चय ही जानवर यहां पानी पीने आते होंगे और मुझे शिकार करने को मिल जायगा । ऐसा सोच कर वह जलाशय के नजदीक एक पेड़ जो कि बेल पत्र का था उस पर चढ़ कर बैठ गया और अपना तीर कमान सावधानी से तैयार कर लिया। 

अंधेरा होने पर एक हिरणी वहाँ आई।  उसे देखकर उसने एक बांण निकाल कर धनुष पर लगाया।  बांण निकालने की हलचल से उस बेल के पेड़ से झड़ कर नीचे गिरे तथा उसके पानी के पात्र से कुछ बूंद छलक कर नीचे गिरीं।  उस पेड़ के नीचे एक शिव लिङ्ग था उस पर यह गिरे।  अतः इस से भगवान शिव की प्रथम पहर की पूजा सांकेतिक रूप से हो गई।  

पेड़ के पत्ते गिरने की खड़खड़ाहट से हिरणी ने चौकन्ना होकर इधर-उधर देखा तो पेड़ पर शिकारी निषाद दिखाई दिया।  वह भयभीत होकर निषाद से बोली,  क्या तुम हमारा  शिकार करने के लिए इस पेड़ पर बैठे हो ?

निषाद ने कहा- हाँ,  आज तुम्हारा शिकार कर अपनी और परिवार की भूख मिटाऊंगा।  निषाद के कठोर वचन सुन कर हिरणी डर गई और उस से अपनी जान बचाने के लिए बोली –

” उपकार करस्यैव यत पुण्यं जायते त्विह ।

तत् पुण्यं शक्यते नैव वक्तुं वर्षशतैरपि ।।”

(शिव पुराण, कोटिरुद्र संहिता,अध्याय 40 श्लोक 26)

“(अर्थात- मेरे शरीर से तुम्हारी भूख मिटेगी यह तो पुण्य की बात है, इस पुण्य के उपकार का वर्णन तो सौ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता। )”

 हिरणी ने आगे कहा कि मैं अपने बच्चों को अपने स्वामी या बहन के पास छोड़ कर आजाऊं तथा-

“स्थिता सत्येन धरणी सत्येनैव च वारिधे ।

सत्येन जलाधाराश्च सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम्  ।।”

(शिवपुराण, कोटिरुद्र संहिता, अध्याय 40- श्लोक 29)

(अर्थात्) यह धरती सत्य पर टिकी हैं सत्य के प्रभाव से समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं, झरनों से जलधारा गिरतीं हैं यानि सत्य में ही सबकुछ स्थित है। 

हिरणी की यह बात निषाद ने नहीं मानी तो वह बोली कि मैं कसम खा कर कहती हूँ कि जैसे ब्राह्मण को अपने नित्य धार्मिक कर्म न करने से या स्त्री को पति की सलाह न मानने से जो पाप लगता है।

अथवा दूसरों का उपकार न मानने पर तथा धर्म का पालन न करने व ईर्ष्या एवं छल करने पर जो पाप लगते हैं वह सब मुझे लगे यदि मैं  लौट कर यहां ना आऊं। ऐसा सुन कर निषाद का विश्वास जागा और उसने हिरणी को लौटने की आज्ञा दे दी तथा वह वापस चली गई।  

थोड़ी देर में रात का एक प्रहर बीत गया तो हिरणी की बहन उसे ढूंढती हुई आई।  हिरणी को देख निषाद ने तुरंत अपना तीर निकाल  उस पर ताना।

तीर निकालने में जो खड़खड़ाहट हुई उससे बेल के कुछ पत्ते नीचे गिरे  व जल छलक कर नीचे गिरा, जिस से भगवान शिव की दूसरे पहर की पूजा संपन्न हो गई।  खड़खड़ाहट की आवाज से चौकन्ना होकर हिरण ने निषाद को पेड़ पर देख पूछा कि तुम क्या कर रहे हो ? 

निषाद ने पहले की तरह बताया कि तुम्हे मार कर अपने परिवार को खिलाऊंगा।  तो हिरणी ने कहा कि यह तो पुण्य की बात है कि मेरी देह भूखों के काम आएगी, पर पहले मुझे अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप आने दो।

लेकिन भील ने कहा कि मुझे तुम पर विश्वास नहीं है।  तो हिरणी बोली कि मैं भगवान विष्णु की कसम खाकर कहती हूँ कि यदि वापस न आऊं तो मुझे घोर पाप लगे।  यह सुन कर निषाद ने उसे भी जाने दिया। 

जब रात का एक पहर और बीत गया तो निषाद सोचने लगा कि हिरणी अब नहीं आऐगी।  परन्तु उसी समय एक हिरन वहाँ पानी पीने आया।  उसे देखकर निषाद खुश होकर अपना तीर निकाल कर धनुष चलाने को तैयार हुआ। 

उसकी हलचल से पहले की भांति कुछ बेल पत्र व जल की बूंदे नीचे गिरीं,  जिस से महादेव का तीसरे पहर का पूजन हो गया।  बेल से पत्ते गिरने की आवाज से हिरन ने निषाद को देख लिया और पूछा कि भाई  क्या कर रहे हो? तो भील ने उसे पहले की तरह स्पष्ट बताया कि तुम्हें मार कर अपने घर के लोगों को भोजन कराऊंगा। 

हिरन बोला यह तो खुशी की बात है क्योंकि  –

” यो वै सामर्थ्ययुक्तश्च नोपकारं वै  ।

तत्सामर्थ्य भवेद व्यर्थं परत्र नरकं प्रजेत  ।।”

(शिवपुराण, कोटिरुद्र संहिता,अध्याय 40 श्लोक 57) 

अर्थात् –  ‘जो परोपकार के काम नहीं आता उसका सब पुण्य बेकार जाता है और जो समर्थ होकर भी उपकार नहीं करता वो नरक को प्राप्त होता है। ‘  हिरन ने आगे कहा कि भाई मैं बच्चों को उसकी माँ को सौंप कर धीरज दे आऊं ।

यह सुन कर निषाद को बड़ा विस्मय सा लगा परन्तु भगवान शिव की पूजा/ कृपा से उसका विश्वास जाग गया था,  पर बोला कि तुम से पहले जो आऐ वह भी ऐसा कुछ बोलकर चले गए और वापस नहीं आऐ तो बताओ हमारा पेट कैसे भरेगा ? 

हिरन बोला, – भाई सब कुछ सच पर टिका है अगर मैं नहीं लौटूं तो मुझे पाप लगे। ऐसा सुन निषाद ने उसे जाने दिया।  हिरन ने हिरणियों के पास जाकर कहा कि मैं भील को वापस आने का वायदा कर के आया हूँ।  तो हिरणियों ने बताया कि वे भी ऐसा वायदा करके आईं थीं । 

तब दोंनो हिरणीं व हिरन जंगल में निषाद के पास  गए और पीछे- पीछे उनके बच्चे भी पहुँच गये। उन सब को देख निषाद को ऐकाएक आश्चर्य हुआ तथा उसने शिकार के लिए अपने धनुष पर बांण रखा।  उसकी शारीरिक हलचल से फिर बेल के कुछ पत्ते व कुछ बूंद जल नीचे शिव लिङ्ग पर गिरा। 

इस से भगवान शिव की चौथे पहर की पूजा हो गई और उस से निषाद को अपने पापों से मुक्ति मिल गई। तभी हिरणियाँ भील से बोलीं,  – भाई वायदानुसार हम आ गये हैं, आप चाहें तो अब अपने तीर से मार सकते हैं। यह सुन कर उसको बड़ा असमंजस सा लगा क्योंकि उसका मन भगवान शिव की कृपा से अब निर्मल हो चुका था। 

वह अपने मन में सोचने लगा कि ये जानवर होकर भी परोपकारी हैं और अपनी क्रूर्ता एवं दुष्कर्मों पर पछतावा करने लगा।  उस ने हिरन व हिरणियों को कहा कि तुम सब वापस चले जाओ। 

उसका यह विवेक पूर्ण व्यवहार देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और उसे साक्षात् दर्शन देकर वर मांगने को कहा।  भगवान शिव के दर्शन मात्र से वह भील जीवन मुक्त हो गया तथा वह हिरन एवं हिरनियाँ भी अपनी योनि से मुक्ति को प्राप्त हो गई। तभी से उस अबुर्द पर्वत पर भगवान शिव व्याघेश्वर नाम से जाने जाते हैं।  

अतः यह सत्य है कि महाशिवरात्रि का व्रत सभी को अत्यन्त ही शुभ फलदायक है तथा अन्य व्रतों से अधिक शुभ है  ।

कथा  –  2

प्राचीन काल में एक गांव में सास  बहू रहतीं थी।  सास क्रूर स्वभाव के कारण बहू के अच्छा व्यवहार नहीं करती थी। बहू बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और भगवान शिव की नित्य पूजा करती थी। 

एक बार जब महाशिवरात्रि का दिन दिन आया तो बहू ने व्रत रखा और सुबह तैयार होकर भगवान शिव को जल चढ़ाने मंदिर जाने लगी तो सास ने पूछा कि कहाँ जा रही है ?

तो बहू ने बताया कि सारे गांव की औरतें मंदिर में शिवलिङ्ग को सींचने जा रहीं हैं और मैं भी शिवलिङ्ग पर जल चढ़ाने जा रही हूँ। तो सास बोली उसे छोड़ तू खेत पर जाकर चिड़िया कौओं को उड़ा वो सारी फसल बर्बाद कर रहे हैं , भगवान थोड़ी तुझे खाने को दे देंगे। 

बहू बेचारी रोती- रोती मजबूरन खेतों पर चली गई। रास्ते में  लोगों को मंदिर जाते देख उसे बहुत रोना आया और खेतों पर जाकर जोर  जोर से रोने लगी।  भगवान शिव व माता पार्वती यह सब देख रहे थे।  पार्वती जी ने महादेव से कहा कि हे देव देखियै कि वह अबला आपकी पूजा के लिए किस तरह रो रही है।  ऐसा कहने पर भगवान शिव व पार्वती जी एक सेठ और सेठानी के वेश में वहाँ गये और रोने का कारण पूछा। 

बहू ने बोला सेठ जी मैं अपनी किस्मत पर रो रही हूँ।  आज शिवरात्रि का व्रत है सब लोग पूजा को मंदिर जा रहे हैं और मैं अभागन सास के हुक्म से यहाँ खेत पर चिड़िया उड़ा रही हूँ।  यह सुन कर सेठ के रूप में आऐ भोलेनाथ को उस पर दया आगई ।

बहू को बहुत सा धन देकर बोले कि तुम घर जाकर पूजा करो और खेतों की रखवाली हम कर देंगे।  बहू खुश होकर घर आकर भगवान की पूजा में लग गई।  तो सास ने पूछा कि तू खेत छोड़कर घर क्यों आ गई ? तो बहू ने सेठ और सेठानी की सारी बात बताई।

यह सुनते ही सास दौड़कर खतों पर गई तो देखा कि खेत में फसल की जगह हीरे मोती लहरा रहे हैं।  सास ने घर आकर बहू से पूछा कि ऐसा कैसे हुआ तो उस ने कहा कि यह सब महादेव की कृपा से हुआ है। तो सास बोली कि अगले साल मैं भी यह व्रत करूंगी। 

अगले साल जब।महाशिवरात्रि का त्यौहार आया तो सास ने भी व्रत रखा और खेत पर जाकर जोर  – जोर से रोने लगी। भगवान शिव और माता पार्वती ने फिर से सेठ सेठानी का रूप रखकर उसके पास आकर रोने का कारण पूछा बोली कि मेरी बहू मुझे बहुत परेशान करती है ।

मुझे पूजा करने से रोक खेतों पर चिड़िया उड़ाने भेज दिया है।  सेठ  सेठानी के रूप में आऐ भगवान शिव ने कहा कि तुम घर जाओ खेत की देखभाल हम कर लेंगे।  इस पर बुढ़िया बोली कि तुम ने तो मुझे कुछ दिया ही नहीं। तो भगवान शिव ने कहा तुम घर जाओ तुम्हे सबकुछ वहाँ मिल जायगा। 

जैसे ही वह घर पहुंची उसके सारे शरीर में छाले निकल आए तो वह अपनी बहू को जोर  जोर से गाली देने लगी। तभी भगवान शिव व माता पार्वती वहाँ प्रकट हुए और बुढ़िया से बोले कि तुम ने शिवरात्रि का व्रत केवल लालच में किया है जब कि तुम्हारी बहू ने सच्चे मन से किया था।

तब सास और बहू दोनों भगवान के आगे हाथ जोड़कर खड़ीं हो गईं और बहू ने भगवान से सास की गलती/पापों को क्षमादान की प्राथना की। बहू के आग्रह से भगवान ने सास को क्षमा कर दिया और उसके शरीर के छाले क्षणभर में समाप्त हो गये । उस दिन के बाद सास नित्य बहू के साथ पूजा अर्चना करने लगी । 

Story -3

 महाशिवरात्रि के संबंध में एक कथा का उल्लेख शिव पुराण में मिलता है।  इस पौराणिक कथा के अनुसार पुरातन काल में चन्द्र भानु नाम का एक गरीब व्यक्ति था जो जंगल में जानवरों का शिकार करके अपने परिवार का जीविकोपार्जन करता था। 

कई बार जंगल में शिकार न मिलने के कारण उसे एक साहूकार से कर्जा भी लेना पड़ता था। साहूकार का कर्जा बढ़ता जा रहा था और वह कर्जा वापस करने में असमर्थ था। ऐसे में साहूकार ने एक बार उसे बंदी बना कर अपने घर के शिव मठ/ शिवालय में बन्द कैद कर लिया। 

जिस दिन उस को बन्दी बनाया वह दिन संयोग से महाशिवरात्रि का था।  साहूकार ने उस दिन अपने घर पर महाशिवरात्रि की पूजा  अर्चना विधि  – विधान से की।  शिकारी  चन्द्र भानु जो साहूकार के यहाँ बन्दी था उस ने पूरी पूजा तथा कथा आदि को बहुत ध्यान से सुना।  

पूजा समाप्ति के बाद शिकारी ने साहूकार से निवेदन किया कि मैं आप का कर्जा शीघ्र उतार दूंगा।  तो साहूकार ने कहा कि मेरा कर्जा कल ही चुकता कर देना। 

यह सुन कर शिकारी ने हाँ कर दी और साहूकार ने उसे बन्दी ग्रह से मुक्त कर दिया।  बन्दी ग्रह से मुक्त होकर तुरन्त ही शिकारी जंगल में शिकार के लिए चल पड़ा जिस से कि अगर शिकार मिल जाय तो वह साहूकार का कर्जा उतारेगा  ।

शिकार की खोज में उसे जंगल में ही शाम खत्म होने को आई और अंधेरा होना शुरु हो गया।  जंगल में एक तालाब था,  इसलिए शिकारी ने सोचा कि निश्चय ही यहाँ पर जंगल के जानवर पानी पीने आते होंगे और वह अगर किसी नजदीक के पेड़ पर छुप कर बैठ जाय तो उसे शिकार करने का मौका आसानी से मिल जायगा। 

ऐसा विचार करके वह शिकारी तालाब के पास एक पेड़ पर चढ़ कर बैठ गया।  जिस पेड़ पर वह चढ़ कर बैठा वह पेड़ बेल पत्थर (बेल पत्र) का था और उसके नीचे एक शिव लिङ्ग था जो कि बेल पत्रों से ढका हुआ होने के कारण स्पष्ट दिखाई भी नहीं दे रहा था तथा इस बात की शिकारी चन्द्र भान को भी कोई जानकारी नहीं थी। 

वह शिकारी पेड़ पर जहाँ बैठा वहाँ पर अपनै बैठने का उचित स्थान बनाने के लिए उस ने बेल पत्र की कुछ टहनियाँ तोड़ी और नीचे गिरा दीं।  इस हलचल में कुछ बेल पत्र पेड़ से नीचे गिरे जो सीधे शिव लिङ्ग पर गिरे।  

वह शिकारी अपने शिकार की घात में भूखा- प्यासा वहीं बेल पत्र के पेड़ पर बैठा रहा।  इस प्रकार उस शिकारी का भी महाशिवरात्री के दिन उपवास हो गया। 

कुछ देर के बाद एक हिरणी जो कि गर्भ से थी वहाँ तालाब पर पानी पीने को आई।  शिकारी ने तुरंत अपना धनुष उठाया और तरकश से एक तीर निकाल कर धनुष पर लगाया तो कुछ खड़ – खड़ की सी आवाज हिरणी को सुनाई दी। 

हिरणी ने तुरंत सतर्क होकर इधर-उधर व पेड़ की ओर  देखा तो उसे तीर कमान के साथ शिकारी दिखाई दिया।  हिरणी उसे देखते ही समझ गई कि वह शिकारी उस का शिकार करना चाहता है। 

अतः व। हिरणी शिकारी से बोली , ” हे शिकारी !  मैं इस समय गर्भ से हूँ और शीघ्र ही मेरा प्रसव होने वाला है।  अगर तुम मेरा वध करोगे तो दो जीवों की हत्या करोगे।  यह उचित नहीं है बल्कि पाप होगा। 

मैं शीघ्र ही अपने बच्चे को जन्म देकर तुम्हारे पास आ जाउंगी।  उस समय तुम मेरा शिकार कर लेना।  यह सुन कर शिकारी ने अपना तीर वापस तरकश में रख दिया और हिरणी वहाँ से वापिस चली गई। 

तीर को वापस तरकश में रखने तथा धनुष को रखने में कुछ बेल पत्र की डालियाँ हिलने के कारण कुछ बेल के पत्ते टूट कर नीचे शिव लिङ्ग पर गिरे। अतः इस प्रकार अनजाने में भगवान शिव की प्रथम पहर की पूजा हो गई।  

कुछ देर बाद वहाँ तालाब पर एक और हिरणी पानी पीने आई।  हिरणी के तालाब के नजदीक आने पर शिकारी ने चौकन्ना होकर तुरन्त अपना धनुष उठाया और उस का शिकार करने के लिए तीर चढ़ाया। 

इस से उस पेड़ के पत्तों की कुछ खड़खड़ाहट हुई तो हिरणी ने एकदम चौकन्ना होकर देखा तो उसे पेड़ पर शिकारी दिखाई दिया।  पेड़ पर तीर कमान के साथ शिकारी को देख कर हिरणी उस से बोली कि मैं अभी थोड़ी देर पहले ही ॠतु से निवृत्त हुई हूँ और कामातुर होकर अपने प्रिय हिरण को खोज रही हूँ। 

तुम मेरा वध अभी मत करो,  मैं अपने पति से मिल कर तुम्हारे पास वापस आ जाऊंगी तब तुम मेरा शिकार कर लेना।  उस शिकारी ने हिरणी की बात सुनकर उसे भी जाने दिया  ।

इसके बाद शिकारी विचार करने लगा कि पता नहीं अब कोई शिकार इधर आयेगा या नहीं क्योंकि अब रात का तीसरा पहर आ गया है।  ऐसा विचार करते  – करते उस ने अपने धनुष वाण एक ओर रखे। 

इस हिल डुल से फिर कुछ बेल पत्र टूट कर नीचे शिव लिङ्ग पर गिर गए  ।इस प्रकार फिर से उस शिकारी का दूसरे पहर का शिव पूजन सम्पन्न हो गया।   

इस के थोड़ी देर बाद उसे एक और हिरणी अपने दो बच्चों के साथ आती दिखाई दी।  शिकारी ने उस हिरणी पर अपने धनुष का निशाना साधा। 

शिकारी के तीर छोड़ने से पहले हिरणी ने शिकारी को देख लिया और बोली,  ” हे वनेचर !  मैं इन बच्चों को इनके पिता के पास छोड़ आऊं और फिर लौट कर तुम्हारे पास आ जाऊंगी। 

कृप्या अभी मुझे जाने दो।  शिकारी ने ऐसा करने से उसे इंकार कर दिया और बोला कि तुम से पहले मैं इसी प्रकार दो हिरणियों को छोड़ चुका हूँ।  शिकारी के वचन सुन कर  हिरणी ने कहा कि आप मेरी बात पर विश्वास करें ,  मैं आप को पूरे भरोसे के साथ आग्रह कर रही हूँ कि मैं वापस आ जाऊंगी।  

हिरणी की बात सुन कर शिकारी को उस पर दया आ गई और उसे शीघ्र आने के लिए बोल कर जाने दिया।  उधर भूखा – प्यासा शिकारी तेज भूख से बेहाल था और इस चिड़चिड़ेपन में पेड़  से पत्तियाँ तोड़ तोड़ कर नीचे डालता रहा जो कि शिव लिङ्ग पर गिर रहीं थीं।  

जब सुबह हुई तो उसे एक मृग (हिरण) तालाब की ओर आता हुआ दिखाई दिया।  शिकारी ने उसे देख कर अपने धनुष वाण उसे मरने के लिए तैयार किये। 

तभी उस मृग ने शिकारी से कहा कि यदि मुझ से पहले यहाँ आने वाली तीन हिरणियों को तुम ने मार डाला है तो मुझे भी मार डालो क्योंकि मैं उनके वध का दुख सहन नहीं कर सकूंगा।  मैं उन हिरणियों का पति हूँ और यदि तुमने उन्हें जीवन दान दिया है तो मुझे भी जीवन दान दो।

मैं वायदा करता हूँ कि मैं उन से मिल कर तुम्हारे पास वापस आ जाऊंगा।  तब तुम मेरा शिकार खुशी के साथ करना।  शिकारी ने उस मृग को भी जाने दिया। 

जब अगली सुबह का सूर्य पूर्णतः निकल आया,  तब तक शिकारी का अंजाने में ही महाशिवरात्रि का जागरण और उपवास एवं तीनों पहर की पूजा शिव लिङ्ग पर बेल पत्र चढ़ने से पूरी हो गई थी।  भगवान भोलेनाथ शिव जी की कृपा से इस शिवरात्रि के उपवास का फल उसे तुरंत प्राप्त हुआ। 

भगवान शिव की कृपा से उस शिकारी का हृदय परिवर्तन हो गया और वह बहुत निर्मल प्रवत्ति का मनुष्य हो गया।  

कुछ ही देर बाद हिरण का पूरा परिवार वहाँ तालाब के पास बेल के पेड़ के नीचे आ गया ताकि शिकारी उनका शिकार  (वध) कर सके।  लेकिन शिकारी ने उन्हें नहीं मारा क्योंकि अब उसका हृदय परिवर्तन हो चुका था।  

महाशिवरात्रि के दिन शिकारी का उपवास और शिव लिङ्ग पर बेल पत्र चढाने से उस शिकारी को मोक्ष प्राप्त हुआ और उसको शिव लोक में स्थान मिला  ।

भगवान शिव की कृपा से शिकारी चन्द्र भान अगले जन्म में राजा बना तथा उसे अपने पिछले जन्म का भी याद रहा।  इस जन्म में भी वह आजन्म भगवान शिव का अनन्य पुजारी रहा।

महाशिवरात्रि का महत्व  – 

     यह दिन भगवान शिव के प्रप्रकाट्य का दिवस है। 

      इसी तिथि को द्वादश ज्योतिर्लिंङ्ग प्रकट हुए थे  ।

समुद्र मंथन के दौरान निकला हलाहल (विष) भगवान शिव ने पी कर अपने कंठ में रोका था, जिस से उनका कंठ नीला पड़ गया। इसीलिए उनका नाम नीलकण्ठ पड़ा ।

जिस दिन भगवान शिव ने विष पीया था वह दिन भी फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का दिन था। 

इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था अर्थात भगवान शिव वैरागी से गृहस्थ बने।  

भगवान शिव ही एक मात्र ऐसे देवता हैं जो कि पृथ्वी (कैलाश) पर वास करते है ।