रुक्मिणी जयन्ती की आवश्यक जानकारी (Information details of Rukmini Jayanti)
1 – रुक्मिणी जी कौन थीं ? Who was Rakmini ji?
Ans. रुक्मिणी जी भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी थीं ।
2 – रुक्मिणी जी किसकी पुत्री थीं ?
Ans. रुक्मिणी जी विदर्भ राज्य के कुण्डिन पुर नगर के राजा की पुत्री थीं ।
3 – रुक्मिणी जी को किस देवी का अवतार मानते हैं ?
Ans. पुराणों के अनुसार रुक्मिणी जी माँ लक्ष्मी की अवतार थीं ।
4 – रुक्मिणी जी का जन्म कब हुआ था ?
Ans. रुक्मिणी जी का जन्म पौष माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था ।
5 – रुक्मिणी जी की पूजा क्यों करते हैं ?
Ans. देवी रुक्मिणी जी की पूजा से घर में धन – धान्य की वृद्धि और संतान सुख प्राप्त होता है ।
आइये देवी रुक्मिणी जी के बारे में विस्तार से जानते हैं –
रुक्मिणी अष्टमी का पवित्र पर्व प्रति वर्ष पौष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है । शास्त्रों / पुराणों में उपलब्ध उल्लेखों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी देवी रुक्मिणी का जन्म इसी अष्टमी तिथि को हुआ था। (जानिए गीता जयंती की सम्पूर्ण जानकारी।)
इसीलिए इस दिन देवी रुक्मिणी के साथ- साथ भगवान श्रीकृष्ण की पूजा बड़े आदर भाव सै की जाती है । माता रुक्मिणी और भगवान श्रीकृष्ण की संयुक्त पूजा को अत्यंत मंगलकारी एवं परिवार में धन धान्य की समृद्धि दिलाने वाला तथा खुशियों से भरपूर रखने वाला माना जाता है।
पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में यह उल्लेख मिलता है कि ‘माता रुक्मिणी देवी भगवती (लक्ष्मी ) के अंश से उत्पन्न हुईं थीं तथा उन में माता लक्ष्मी के सभी शुभ लक्षण मौजूद थे।
इसीलिए माता रुक्मिणी को सनातन धर्म में लक्ष्मी का साक्षात अवतार माना जाता है । यही प्रसंग श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय 52 (श्लोक संख्या 16 , 17 ) में आता है।
पद्म पुराण में यह भी उल्लेख मिलता है कि ‘त्रेता युग में श्रीराम के अवतार के समय जो सीता रूप में प्रकट हुईं थीं वे ही भगवती लक्ष्मी श्रीकृष्ण के अवतार के समय रुक्मिणी के रूप में अवतीर्ण हुईं थीं ।’ (श्रीराम जानकी विवाह पर्व)
पद्म पुराण में देवी रुक्मिणी के जन्म के संबंध में एक स्थान पर ऐसा उल्लेख/ वर्णन मिलता है कि पूर्व जन्म में देवी रुक्मिणी एक ब्राह्मणी थी और वह किसी दुर्भाग्य / कारण वश युवावस्था में विधवा हो गई थीं।
अपने पति के निधन के बाद वह भगवान विष्णु नारायण की भक्ति में लीन रहने लगीं । निरंतर भगवान विष्णु की भक्ति, पूजा आराधना में रहने का प्रति फल यह मिला कि अपने अगले जन्म में साक्षात विष्णु के अवतार वासुदेव नन्दन भगवान श्रीकृष्ण की पत्नि बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तथा साक्षात लक्ष्मी तुल्य हो गईं ।
देवी रुक्मिणी के बारे में यह माना जाता है कि वह बहुत ही दयालु प्रकृति की थीं और सभी का मंगल करना उनको बहुत भाता था। पद्म पुराण के अलावा विष्णु पुराण एवं श्रीमद् भागवत पुराण में भी देवी रुक्मिणी को भगवान विष्णु की पत्नी माता लक्ष्मी का अवतार बताया है।
रुक्मिणी शब्द का क्या अर्थ है ?
रुक्मिणी शब्द मूलतः संस्कृत भाषा के शब्द ‘रुक्मा’ से लिया गया है। संस्कृत शब्द रुक्मा का अर्थ है – दीप्तिमान ; स्पष्ट ; तथा उज्जवल है। अतः जो दीप्तिमान हो, स्पष्ट हो, उज्जवल हो वह रुक्मिणी है।
माता रुक्मिणी को किन-किन नामों से जाना जाता है ?
माता रुक्मिणी को मुख्यतः निम्न नामों से जाना जाता है :
विदर्भी– अर्थात जो विदर्भ राज्य से हो ।
भीष्म – अर्थात भीष्मक की पुत्री ।
रखुमाई – अर्थात माँ कल्याणी ।
चिरयुवन – अर्थात जो सदैव युवा हो ।
प्रद्युम्नजननी – अर्थात प्रद्युम्न की माता।
देवी रुक्मिणी की पूजा कहाँ अधिक होती है ?
देवी रुरुक्मिणी की पूजा मुख्यतः महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तामिल नाडू, गुजरात और केरल राज्य में अधिक होती है।
उत्तरी बंगाल और महाराष्ट्र में देवी रुक्मिणी के साथ भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति भी मन्दिरों में मिलती हैं जो भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी का प्रतिनिधित्व करती हैं। उत्तर बंगाल में पाए जाने वाली मूर्तियाँ छठी / सातवीं शताब्दी की हैं।
महाराष्ट्र में भगवान श्रीकृष्ण को ‘विठोबा’ नाम से पुकारते हैं। अतः विठोबा भगवान श्रीकृष्ण का एक क्षेत्रीय रूप है।
अरुणाचल प्रदेश के मिश्मी प्रजाति के लोग ऐसा मानते हैं कि देवी रुक्मिणी उनके कबीले की थीं। अरुणाचल प्रदेश में आज भी रुक्मिणी हरण नाटक तथा रुक्मिणी नृत्य वहाँ के जन साधारण में बहुत लोकप्रिय (Popular) है।
इस के अलावा मणिपुर राज्य के लोग देवी रुक्मिणी को मणिपुरी मानते हैं तथा इसीलिए वहाँ भगवान श्रीकृष्ण को भी बहुत अधिक माना जाता है।
इन को मानने वाले लोग (स्त्रियाँ एवं पुरुष) सामान्य / अपने नित्य प्रति जीवन में केवल गुलाबी रंग के वस्त्र ही धारण करते हैं तथा वह सभी चाहे किसी भी व्यवसाय से जुड़े हों, अपने माथे पर एक विशेष प्रकार का तिलक लगाते हैं । (भगवन तिरुपति बालाजी की लोग इतना क्यों पूजते हैं?)
रुक्मणी अष्टमी किस उपलक्ष्य में मनाई जाती है ?
देवी रुक्मिणी के जन्म दिवस को रुक्मिणी अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। देवी रुक्मिणी का जन्म पौष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को विदर्भ राज्य के कुण्डिन पुर नगर में हुआ था। इनके पिता भीष्मक विदर्भ राज्य में कुण्डिन पुर नगर के राजा थे। विष्णु पुराण में भी यह बताया गया है –
“भीष्मक कुण्डिने राजा विदर्भविषयेऽभवत् ।
रुक्मि तस्या भवत्पुत्रो रुक्मिणी च वरानना ।।”
(विष्णु पुराण, पंचम अंश, अध्याय 26, श्लोक- 1)
पद्म पुराण (उत्तर खण्ड) में यह उल्लेख है कि ‘भीष्मक की कन्या रुक्मिणी भगवती लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न हुई थी और उस में सभी शुभ लक्षण मौजूद थे ।’ इसीलिए महानता के कारण देवी रुक्मिणी का जन्म दिवस रुक्मिणी अष्टमी के नाम से बड़े आदर और सम्मान के साथ पौष मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है ।
इस वर्ष रुक्मिणी अष्टमी कब है ?
इस वर्ष अर्थात सन् 2022 में रुक्मिणी अष्टमी दिनांक 16 दिसम्बर 2022 को मनाई जायगी ।
पौष माह की कृष्ण पक्ष
अष्टमी तिथि प्रारंभ – दिनांक 16 दिसम्बर 2022, दिन शुक्रवार, 01- 30 AM से
अष्टमी तिथि समाप्त – दिनांक 17 दिसम्बर 2022,दिन शनिवार, 03 – 02 AM तक।
रुक्मिणी अष्टमी पूजा विधि –
पौष मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन सुबह जल्दी अर्थात सूर्योदय से पहले उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हों।
स्नान प्रारंभ करने से पहले पवित्र नदियों का आवाह्न करें। यह अत्यंत शुभ एवं फलदायी होता है।
स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
इस के पश्चात एक बड़े पात्र थाल या परात आदि लेकर उस में माता रुक्मिणी और भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति / प्रतिमा रखें और दक्षिणवर्ती शंख में स्वच्छ जल डाल कर, यदि गंगाजल उपलब्ध हो तो कुछ बूंदें गंगाजल की अवश्य डालें ।
तदुपरांत उस जल से भगवान श्रीकृष्ण और देवी रुक्मिणी का जलाभिषेक करें ।
जलाभिषेक करते समय निम्न मन्त्र अवश्य बोलें –
ऊँ माँ रुक्मिणयै नमः ।
ऊँ कृं कृष्णाय नमः ।
ऊँ श्रीकृष्ण शरणं मम ।
इस के पश्चात पूजा स्थल या जहाँ पर पूजा करनी हो, वहाँ एक चौकी बिछा कर थोड़ा सा जल हाथ मे लेकर, अगर संभव हो तो कुछ बूंद गंगाजल मिला कर पूजा के स्थान पर पवित्रता के लिए छिड़कें।
अगर चौकी बिछाई है तो उस पर कोई नया या स्वच्छ लाल, पीला या नारंगी रंग का एक वस्त्र बिछाऐं अन्यथा उस स्थान पर जहाँ भगवान श्रीकृष्ण और देवी रुक्मिणी की प्रतिमा स्थापित करनी है वहाँ कुछ फूलों की पंखुड़ियाँ डालें और उन पर देवी रुक्मिणी तथा भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति / प्रतिमा स्थापित करें।
अगर भगवान श्रीगणेश की मूर्ति हो तो उसे भी पूजा में रखें।
मूर्ति स्थापना के बाद शुद्ध घी का दीपक जलाऐं। दीपक जलाने के बाद भगवान श्रीगणेश, भगवान श्रीकृष्ण और देवी रुक्मिणी को चन्दन या रोली से तिलक लगाकर वंदन करें ।
हिन्दू / सनातन धर्म कोई भी पूजा या शुभ कार्य शुरु करने से पहले सदैव भगवान श्री गणेश को पूजा जाता है, अतः पहले उनकी अर्चना निम्न मन्त्रों से करें –
” ऊँ श्रीगणेशाय नमः। “
“ऊँ गं गणपत्ये नमः ।”
“ऊँ गजाननं भूतगणाधि सेवितं,
कपित्थजम्बू फलचारु भक्षणम् ।
उमा सुतं शोक विनाश कारकं ,
नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम् ।।
श्रीगणेश पूजन के बाद भगवान श्रीकृष्ण और देवी रुक्मिणी की कुमकुम, अबीर, चन्दन, सुगंधित इत्र
तथा फूलों से पूजा करके माता रुक्मिणी को लाल वस्त्र अर्पित करें तथा भगवान श्रीकृष्ण को पीला वस्त्र अर्पित करें।
देवी रुक्मिणी की पूजा में ‘रुक्मिणी अष्टक ‘ अवश्य पढ़ना चाहिए। इस का पढ़ना बहुत शुभ एवं फलदायक माना जाता है । ( रुक्मिणी अष्टक नीचे दिया गया है। )
घर के सब लोग मिलकर भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान/ भजन अवश्य करें।
पूजा के बाद माता रुक्मिणी और भगवान श्रीकृष्ण को पंचामृत के साथ- साथ तुलसी दल , पंच मेवा, कुछ मिठाई (मिष्ठान) आदि तथा कुछ उपलब्ध ऋतु फल अर्पित कर भोग लगाऐं।
इन के अलावा देवी रुक्मिणी व भगवान श्रीकृष्ण को खीर का भोग विशेष रूप से लगाना चाहिए। भोग के सामान में तुलसी दल डालने चाहिए।
पूजा समाप्त होने पर देवी रुक्मिणी व भगवान श्रीकृष्ण की सब मिलकर एवं खड़े होकर आदर भाव से आरती करनी चाहिए ।
आरती के बाद उपस्थित लोगों को प्रसाद बाटें तथा स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें ।
शाम को गौधूलि के समय आरती अवश्य करें तथा एक दीपक जलाकर तुलसी पर भी रखें ।
जिन लोगों ने इस दिन व्रत किया है वह अगले दिन सुबह (नवमी के दिन) एक ब्राह्मण को भोजन कर कर अपने व्रत का पारण करें ।
रुक्मिणी अष्टक -Rukmini Ashtak –
नमस्ते भीष्मकसुते वासुदेवविलासिनी। प्रद्युम्नम्ब नमस्तुभ्यं प्रसीद भगवानि ।।
नमः कमल मालिन्यै कमले कमलालये ।
जगन्मातर्न नमस्तुभ्यं कृष्णप्राणाधिक प्रिये ।।
जानकी त्वं च लक्ष्मीस्तवं विष्णुवक्षःस्थल स्थिता ।
वैकुण्ठपुर सामराज्ञी त्वं भक्ताभिष्टदायिनी ।।
स्वस्वर्णवर्णे रमे रम्ये सौंदर्याकररूपिणि ।
मारमातर्महालक्ष्मी कृष्ण कन्दर्पवर्धिनि ।।
वर्धिनी सुभगानां च वर्षिणी सर्वसम्पदाम् ।
नारायणीड़्घ्री युग्मे त्वं नित्यदास्य प्रदायिनी ।।
गोविंदपट्ट महिषि द्वारकापुर नायिके।
शरण्ये वत्सले सौधमे भीमातीरनिवासिनी ।।
त्वदन्या का गतिमातरग तीनां जगत्त्रये।
कृष्णकारुण्य रूपा त्वं तक्षान्तिपरिवर्धिनी ।।
कृष्णे त्वयि च हे मातर्दृढा भक्तिः सदाऽस्तु नः ।
जयोऽस्तु जय वैदर्भि रुकमिन्यम्ब ज्योत्स्ना ते ।।
आरती रुक्मिणी माता की – Rukmini Ji Ki Aarti
जय रुक्मिणी माता, मैया जय रुक्मिणी माता।
द्वारका धाम की देवी, शुभ फल की दाता ।। जय रुक्मिणी …
रघुकुल पद्मनिवासिनी, जय सेवक त्राता ।
जग जीवन अवलंबा, मंगल गुण गाता ।। जय रुक्मिणी …..
तुम सा देवा रिका नाथ संग, कुण्डलयुत साथा।
देव वधू जहाँ गावत, नित्य करत साथा ।। जय रुक्मिणी ….
द्वापर रूप शील अति सुन्दर, जगमाता सब नाता।
भीष्मक राज घर जन्मी, सखियन रंग लाता ।। जय रुक्मिणी …..
अनुज जब धुहल धरती, प्रद्युम्न की माता।
देवन अरज करत हैं, देवियाँ संग गाता ।। जय रुक्मिणी……
आरती प्रेम सुनेम सौंखरी, भाग्य उदय हो जाता।
सुख संपदा की देवी, चहुदिश विख्याता ।। जय रुक्मिणी….
ज्योति जगा कर नित्य, आरती जो कोई गाता ।
भवसागर के दुख में, गोता कभी ना खाता ।।
जय रुक्मिणी माता ….
रुक्मिणी माता की कथा – Rukmini Ji Ki Katha
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थीं, जिन में देवी रुक्मिणी का नाम प्रथम स्थान पर आता है। माता रुक्मिणी विदर्भ राज्य स्थित कुण्डिन पुर नगर के राजा भीष्मक की पुत्री थीं।
देवी रुक्मिणी साक्षात् लक्ष्मी माता की अवतार थीं। रुक्मिणी का भाई उनका विवाह शिशुपाल के साथ करना चहता था परन्तु देवी रुक्मिणी अपने बाल्यकाल से ही भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थी।
इस असीम भक्ति के चलते उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना सब कुछ मान चुकी थीं। वह चाहतीं थीं कि अगर उनका विवाह हो तो भगवान श्रीकृष्ण ही उन को पति के रूप में प्राप्त हों।
जब उन के भाई ने उनका विवाह शिशुपाल से तय कर दिया और विवाह की तैयारी होने लगीं तो देवी रुक्मिणी ने भगवान श्रीकृष्ण के पास एक ब्राह्मण के हाथ अपनी इच्छा का यह संदेश द्वारका भेजा।
“तन्मे भवान् खलु व्रत पतिरंग जायामात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि ।
मा वीरभागमभिमशर्तु चैद्य आराद् गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष ।।”
(अर्थात हे प्रियतम ! मैने आपको पति रूप में वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदय की बात आपसे छिपी नहीं है। आप यहाँ पधार कर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए। कमलनयन ! प्राणवल्लभ ! मैं आप सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ अतः शिशुपाल निकट आ कर मेरा स्पर्श ना कर जाय।)
(भागवत पुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय 52, श्लोक- 39 )
विवाह वाले दिन देवी रुक्मिणी पारिवारिक परंपरा के अनुसार माँ भगवती के मन्दिर गयीं और माँ अम्बे से अर्चना की कि वह भगवान श्रीकृष्ण से उन्हें मिला दें।
“नमस्ये त्वामाविशत्क्रोधो स्वसन्तानयुतां शिवाम् ।
भयात् पतिर्मे भगवान् कृष्णस्तदनुमोदताम् ।
(अर्थात- रुक्मिणी जी ने भगवती से प्रार्थना की – हे अम्बिका माता ! आप की गोद में बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेश जी को तथा आप को मै बार – बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान श्रीकृष्ण मेरे पति हों ।)
(श्रीमद् भागवत पुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय 53 – श्लोक 46 )
जब देवि रुक्मिणी मन्दिर से बाहर आयीं तो बाहर भगवान श्रीकृष्ण को एक रथ में उन्होने देखा। मन्दिर के बाहर से ही श्रीकृष्ण जी उन को अपने रथ में बैठा कर द्वारका ले गये।
द्वारका पहुंच कर श्रीकृष्ण जी ने रुक्मिणी जी के साथ विधि पूर्वक विवाह किया। (यह विवरण श्रीविष्णु पुराण के पंचम अंश के अध्याय 26 तथा श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय 54 में विस्तार से मिलता है ।)
शास्त्रों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि को हुआ था। राधा जी का जन्म भी अष्टमी तिथि को हुआ था और देवी रुक्मिणी का जन्म भी अष्टमी तिथि को ही हुआ था।
इसीलिए सनातन धर्म अनुयायीओं के लिए अष्टमी तिथि को बहुत ज्यादा शुभ माना जाता है। यही कारण है कि अष्टमी के दिन लक्ष्मी देवी की पूजा को विशेष रूप से अधिक महत्व पूर्ण माना जाता है।
ऐसी मान्यता है कि अष्टमी को व्रत रखने से परिवार में धन धान्य की समृद्धि आती है तथा पारिवारिक एवं सामाजिक रिश्तों में प्रगाढता आती है और संतान सुख प्राप्त होता है ।
रुक्मिणी अष्टमी का क्या महत्व है-
रुक्मिणी अष्टमी को व्रत करने से तथा माता रुक्मिणी की पूजा करने से परिवार में धन धान्य की वृद्धि होती है।
महाराष्ट्र में देवी रुक्मिणी को भाग्य की देवी माना जाता है ।
माता रुक्मिणी के साथ – साथ भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कर व्रत रखने एवं पूजा करने से सन्तान सुख प्राप्त होता है ।
पद्म पुराण में बताया गया है कि माता रुक्मिणी सहित श्री हरि अर्थात श्रीकृष्ण जी का स्मरण करने से मनुष्य निश्चय ही पापरहित हो परम धाम को प्राप्त होता है ।
रुक्मिणी अष्टमी को अधिकांशतः स्त्रियाँ व्रत पूजा करतीं हैं, उन की पूजा करना दाम्पत्य सुख सुनिश्चित करने का तरीका माना जाता है ।